Tuesday, August 17, 2010

मंगल स्तुति

मंगलाचरण गुरुस्तुति
ब्रह्मरूप आनंदघन, निर्विकार निर्लेव ।
मंगलकरण दयालजी, तारण गुरु शुकदेव ॥
सतियन में तुम सत्य हो, शूरण में हो वीर ।
यतियन में तुम यती हो, श्री शुकदेव गंभीर ॥
पतित उधारण तुम लखे, धरम चलावन भेव ।
संकट सकल निवारिये, जै जै श्री शुकदेव ॥
चिंता मेटन भयहरण, दूरि करण जग व्याध ।
गुरु शुकदेव कृपा करो, चरण लगे सब साध ॥
दाता चारों भेद के, श्री शुकदेव दयाल ।
"चरणदास" पर हूजिये, बारम्बार कृपाल ॥
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श्री शुकदेव जी महाराज का अष्टक
षोडश वर्ष किशोर मूरति, श्याम वरण दिगम्बरं ।
घूंघर वाले केश झलके, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
पदम आसन उदर त्रिवली, चरण पंकज शोभितम ।
आजानुभुज मुस्कात मुखसो, श्री शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
गुढ़जत्रु विशाल उर छवि, नाभि गंभीर विराजितं ।
जलज लोचन सुखद नासा, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
श्री व्यासनंदन जगत वंदन, मोह ममत्व निकन्दनं ।
काम क्रोध मद लोभ न जिनमे, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
ब्रह्मरूप अनूप मुनिवर, पराशर कुलभूषणम ।
श्री कृष्ण चरित पुनीत वरनत, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
त्रिभुवन उजागर कृपासागर, द्वन्द संकट मोचनम ।
प्रेम मद माते रहे नित, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
निरालम्ब निहभर्म निशिदिन, स्थिर बुद्धि निकेतनम ।
धर्मधारी ब्रह्मचारी, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
पतितपावन भर्म नशावन, शरणागत सुखदायकं ।
मायाजीतं गुनातीतं, (श्री) शुक्मुनि चरण प्रणाम्यहं ॥
श्री सुखदेव अष्टक परम सुन्दर, पठत पाप नशायकं ।
"चरणदास" शुकदेव स्वामी, भक्ति मुक्ति फलदायकम ॥
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श्री स्वामी श्याम चरणदासाचार्य स्तवन
प्रभु पतित पावन दुःख नशावन, जयति श्याम चरणदास हो ।
रसिक आचारज विदित, पूरनकला सुख रास हो ॥
कुंजो के नंदन करो वंदन, मुरलीसुत मंगल करन ।
प्रेम भक्ति के प्रदाता, द्वन्द संकट के हरन ॥
जान कर कलि काल भृगु कुल, प्रगट व्हे दर्शन दियो ।
च्यवन वंश प्रशंस कर, संसार को पावन कियो ॥
योग ज्ञान विराग साधन, सिद्ध कर समरथ धनी ।
विमुख हरि सनमुख किये, भव विपति जीवन के हनी ॥
रूप नाना धार देश, विदेश भक्ति प्रचारिया ।
नाम दम्पति दान कर जिय, अमित भव सों तारिया ॥
(श्री) धाम वृन्दावन युगलवर, मिले सेवा कुञ्ज में ।
लखी रास विलास लीला, मिल सखिन के पुंज में ॥
इन्द्रप्रस्थ निवास कर, बहु शिष्य सेवक निज किये ।
राव रंक नरेश जिनको, विविध विधि परिचय दिए ॥
प्रात संध्या प्रेम कर, स्तोत्र जो गायन करे ।
कहें 'सरस माधुरी' भक्तजन, संसार सागर सों तरें ॥
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सुमेरु
हरि को सुमिरि संकट हरन ।
कोटि कष्ट निवार टारण, जगपति पोषण भरन ॥
भक्ति पूरन देखि निश्चल, अनन्य व्रत बांधो परन ।
अग्नि में प्रहलाद राखो, दियो नाही जरन ॥
गिरि शिखर सों डारी दीन्हो, लगो करुणा करन ।
दीन जानि सम्भारी लीन्हो, कियो ठाडो धरन ॥
खम्भ बांधो ख्ढ्ग काडो, दुष्ट लागो अरन ।
अब बता तेरो राम कित है, गहो वाकी शरन ॥
ढीठ को प्रहलाद भाख्यो , डारी शंका डरन ।
मोमे तोमे खड्ग खम्ब में, मध्य हे नारी नरन ॥
खम्ब फटकर भये परगट, धरो नरसिंह वरन ।
असुर मारो जन उबारो, पुष्प वर्षे सुरन ॥
मोहि गुरु शुकदेव कहीये, सेव सोई चरन ।
"चरनदास" उपासना द्रढ़, होय तारण तरन ॥
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Sunday, July 5, 2009

अनन्त श्री विभूषित श्री श्री अलबेली माधुरी शरण जी महाराज


श्री गुरु सब विधि पूरण काम ॥
चार पदारथ देत दयानिधि, दानी दंपति नाम ॥
रसिकन को दें प्रेम सुधारस निज वृंदावन धाम ।
सरस माधुरी कृपा गुरून की दरसें श्यामा श्याम ॥
शुक सम्प्रदाय

शुक सम्प्रदाय के प्रवर्तक और आद्याचार्य श्यामचरणदास अथवा चरणदास जी का आविर्भाव भाद्रपद शुक्ला तृतीय संवत १७६० (१७०३ ई. ) में अलवर जिले के डेहरा गाँव में हुआ था। पिता का नाम मुरलीधर और माता का कुंजो देवी था और उन्होंने अपने इस लाडले का नाम रणजीत रखा। पाँच वर्षीय रणजीत को शरद पूर्णिमा के दिन डेहरा गाँव में ही श्रीशुकदेव ने अवधूत रूप में दर्शन देकर गोद में लिया और बहुत प्यार-दुलार किया। राजयोग, भक्तियोग और सांख्ययोग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लेने पर रणजीत चरणदास के नाम से जाने गए और शुक सम्प्रदाय या चरनदासी मत के प्रवर्तक बने। ' गुरुभक्ति प्रकाश ' और ' लीलासागर ' जैसे ग्रंथो में महात्मा चरणदास के अनेके चमत्कारों का वर्णन हुआ है, किंतु ऐसे सिद्ध हो जाने पर भी वे बड़े निरभिमानी रहे। उनका तो जीवन सूत्र यह था :

दया नम्रता दीनता शील क्षमा संतोष,

इनको ले सुमिरन करे निश्चय पावे मोक्ष ॥

श्री श्यामचरणदास जी के दो प्रिय शिष्यों रामरूप और ध्यानेश्यर जोगजीत ने अपने गुरु की जीवनिया लिखी है, जिनका नाम है ' गुरु भक्ति प्रकाश ' और लीला सागर ' और क्योंकि ये उनके जीवनकाल में लिखी गई थी इसलिय इन्हे प्रमाणिक माना जाता है। स्वयं श्री श्यामचरणदास जी ने दस हजार वाणिया लिखी किंतु इनमे से पाँच हजार गंगा में विसर्जित कर दी और पाँच हजार अग्नि को चढाई गई, कयोंकि अपने गुरु से उन्हें ऐसी ही प्रेरणा मिली थी। अब उनके उपदेश ' श्री भक्तिसागर ' में संगृहीत है जिसमे श्रीमदभगवत के समानानतर निष्काम कर्मयोग, अष्टांगयोग, राजयोग, स्वरोदय, नवधा भक्ति, प्रेमा व पराभक्ति तथा ब्रहमज्ञान सागर का विषद वर्णन है।

जयपुर में शुक सम्प्रदाय को भक्ति का जन आन्दोलन बना देने का समूचा श्रेय पंडित शिवदयाल वकील 'सरसमाधुरी जी ' को जाता है। इस परम भक्त और सरस कवि ने राधा कृष्ण की सगुण भक्ति दी जो मन्दाकिनी प्रवाहित की उसमे इस नगर के एक बड़े समुदाय ने अवगाहन किया और आज भी कर रहा है। पानो के दरीबे में ' सरसनिकुञ्ज ' इस सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए वृन्दावन का विकल्प अथवा दूसरा वृन्दावन ही है । इस सम्प्रदाय की उपासना सखी भाव की है और सरस माधुरी जी ने इस भावना के अनुरूप आचार्य परिकरो के चित्रों की प्रतिष्ठा कराई। प्राचीन साधू संतो की वाणियों का संग्रह कर इस भवन में एक पुस्तकालय भी स्थापित किया गया जिसमे आज भी कई हजार ग्रन्थ है।

दरीबा पान में श्री सरस निकुंज के प्रिया प्रियतम की झांकी अतीव मनोहर है। एक और श्री शुक सखिजी ( श्यामलाजी ) तथा दूसरी और श्री प्रेम मंजरीजी ( श्यामचरणदास महाराज ) अपने परिकर सहित सेवा की वस्तुए लेकर उपस्थित है। आचर्य रूप में भी दोनों और श्री शुक देव और श्री श्यामचरणदासाचार्य विराजमान है। उनके चरणों में सरस माधुरी शरण जी और उनके उतराधिकारी रसिक माधुरीशरण जी विराजमान है। रासमंडल की अष्ट सखियाँ अपने अपने कुञ्ज भवन से सेवार्थ गमन कर रही है। इस निकुंज में श्री राधा सरस बिहारी जी की सेवा सरस माधुरी शरण जी के समय से ही चली आ रही है।

स्वामी चरणदास जी के हजारो शिष्य हुए थे जिनसे अलग अलग कई परम्पराए चली, किंतु जयपुर के ' श्री सरस निकुंज ' की परम्परा इस प्रकार अंकित की गई है :

श्रीमन्नारायण भगवान् - श्री ब्रह्मा जी - श्री नारद जी - श्री वेदव्यास जी - श्री शुकदेव जी - स्वामी चरणदास जी (डेहरा, अलवर-दिल्ली) - स्वामी रामरूप जी (जयसिंह पुर, दिल्ली ) - स्वामी रामकृपाल जी (ककरोई दिल्ली ) - श्री बिहारीदास जी - ठाकुर दास जी (लुक्सर, सहारनपुर ) - स्वामी बलदेवदास जी (ब्रजप्रदेश, लुक्सर ) - स्वामी सरसमाधुरी शरण जी (मंदसौर जयपुर ) - स्वामी रसिक माधुरी शरण जी ( जयपुर ) - श्री अलबेली माधुरी शरण जी ( जयपुर -वर्तमान )।

Saturday, July 4, 2009

युगल सरकार




सम्प्रदाय शुकदेव मुनि, चरणदास गुरु द्वार।
परम धर्म भागवत मत, भक्ति अनन्य विचार॥

श्याम चरण के दास को, जपे प्रेमकर नाम।
तिनको दंपत्ति भुजन भर हंसी भेटे सुख धाम।।

अनुपम माधुरी जोरी, हमारे श्याम श्यामा की।

रसीली रसभरी अखियाँ , हमारे श्याम श्याम की॥

कटीली भोंहे अदा बांकी, सुघर सूरत मधुर बतियाँ।

लटक गर्दन की मन बसियाँ, हमारे श्याम श्यामा की ॥

मुकुट और चन्द्रिका माथे, अधर पर पान की लाली।

अहो कैसी बनी छवि है, हमारे श्याम श्यामा की॥

परस्पर मिलके जब विहरें, वो वृन्दावन के कुंजन में।

नही बरनत बने शोभा, हमारे श्याम श्यामा की॥

नही कुछ लालसा धन की, नही निर्वाण की इच्छा।

सखी श्यामा मिले सेवा, हमारे श्याम श्यामा की॥

श्री गीतगोविन्दम


संप्रदाय शुकदेव मुनि, आचारज चरणदास ।

परम धरम भागवत मत, भक्ति अनन्य विचार ॥
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राधाकृष्ण उपास्य, धर्म भागवत हमारो ।
निज वृन्दावन धाम, मुक्ति सामीप्य निहारो ॥
तीरथ गंगा जान, बर्त ग्यारस को धारो ।
क्षमा, शील, संतोष, दया निज हिये विचारो ॥
संप्रदाय शुकदेव मुनि, आचारज चरणदास ।
'राम रूप' तिन पद शरण, नवधा भक्ति निवास ॥
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भरोसो श्री शुक मुनि को भारी ।
जिनको नाम सकल सुख की निधि सब विधि मंगलकारी॥
चरण चारू नख चन्द्र चन्द्रिका भावक हिये तम हारी ।
दरशे सहज सलौने दम्पति राधा सरस बिहारी ॥
अतुलित कृपा करत निज जन पर भाव भक्ति दातारी ।
सरस माधुर सेव कुञ्ज की कृपा करो बलिहारी ॥
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आसरो श्याम चरणदास चरण को ।
और उपाय नहिं कोऊ दीखत या भव सिन्धु तरन को ॥
दृढ विश्वास आस इन ही की जाचक नाहिं नरन को ।
टारी टेक टेर नाहिं कबहूँ भय नहीं जन्म मरण को ॥
जग में दासन दास कहोए नहीं अभिमान वरन को ।
सरस माधुरी संशय नाही है बल मोहि शरण को ॥
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मोहि भरोसो श्री गुरु ही को ।
सब विधि गुरु सहायक जिनके, भय नहिं मोकों पाव रती को ॥
साक्षात् श्री हरी गुरु राजे, सब संदेह गयो है जीको ।
दृढ विश्वास भयो मन मेरे, पायो अवसर अति ही नीको ॥
सरवस धन गुरुदेव दयानिधि, और जगत सब लागत फीको ।
सरस माधुरी समरथ स्वामी, बेग मिलावे प्यारी पीको ॥
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हरि मोहि ऐसा कर वैरागी ।
बाहर ग्रेही सा दर्साऊ, अन्तर मे रहूँ त्यागी ॥
राग द्वेष दोनों छुट जावें, समझू आतम रूपा ।
हर्ष शोक हिरदय से भागे, व्यापे छाह न धूपा॥
सांच हरि सूं सहज जगत सूं, कोऊ लेप न लागे ।
तिर्गुण माया की मरजादा, पहुचावो तिहि आगे॥
कर्म न बांधे भरम न उपजै, कोई रहे न आसा ।
चार पदारथ में नहिं अटकू, कर लीजै निज दासा॥
कंठी प्रीति गले पहिरावो, किरपा तिलक लगावो ।
चरणदास गुरु हाथ धरों अब, 'रामरूप' अपनावो॥
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अथ श्रीमंगलाकुञ्जभावना पद
वय किशोर लावन्यानिधि वसन चम्पई रंग ।
सेवा स्तवगान की प्रेम पुलक अंग अंग ॥
लालमणिन सों जगमगत कुञ्ज मंगला ऍन ।
अतुलित रचना है तंहा कहत बनत नहीं बैन ॥
अग्र मंगला कुञ्ज के सुन्दर वर दालान ।
वीन लिये कर शुकसखी करन लगी कलगान ॥
श्यामचरणदासी सखी लें परिकर निज संग ।
सेवा सोंज ले कर खड़ी हिय में हर्ष उमंग ॥
अरुण चम्पई वस्त्र्वर नख शिख सजि श्रृंगार ।
रस आचारज यूथ पति शोभित कुञ्ज अगार ॥